Review: Narak Yatra

Narak Yatra Narak Yatra by Gyan Chaturvedi
My rating: 2 of 5 stars

यह दो सफल डाक्टरों की बातचीत थी। यह दो भारतीय ढंग से जागरूक चिकित्सकों की बातचीत थी। यह नीम-हकीमों, ऐलोपैथिक दवाइयों के बल पर आयुवैदिक प्रेक्टिस करते वैद्यों, घरेलू उपचारों के बल पर चिकित्सा क्षेत्र में झंडा गाड़नेवालों, मीठी गोलियों को ही होमियोपैथी समझनेवाले होमियोपैथों, बिना चीरफाड़ के मस्सों तथा भगंदर को शर्तिया सुखा देनेवाले चाँदसी-दवाखानों, हिमालय की कंदराओं में वर्षों भटकने के बाद भी जवान बने रहनेवाले तथा यहाँ-वहाँ की हड्डियाँ तथा खालें बटोरकर और डंठल-फूल-पत्तियाँ बटोरकर उनका मजमा लगाकर नामर्दों–पुराने बीमारों–बाँझों आदि को बेचनेवालों, डाक से इलाज करनेवालों, पोलियो, दमा-मिर्गी तथा मधुमेह आदि का शर्तिया इलाज करने के बड़े-बड़े विज्ञापन अखबारों में निकालने के बाद भी चिकित्सा के क्षेत्र में नोबल-प्राइज न पानेवाले हतभाग्यवीरों तथा मर्दाना कमजोरी, गुप्त रोगों आदि के मायाजाल फैलाए माया-मछंदरों के रेगिस्तान में नखलिस्तान की गलतफहमी पाले हुए ‘भारतीय एलोपैथिक’ चिकित्सा के टापू पर खड़े दो भटके हुए यात्रियों की बातचीत थी। मैंने ‘भारतीय एलोपैथिक पद्धति’ की बात इसीलिए की क्योंकि हमारी एलोपैथिक चिकित्सा का ढंग विदेशी एलोपैथिक चिकित्सा से एकदम निराला है। हमने एलोपैथी का ऐसा राष्ट्रीयकरण तथा भारतीयकरण किया है, कि लोग असली माल पहचानना भूल गए। हमारे यहाँ एलोपैथिक चिकित्सा का तात्पर्य है– लाल-पीली कुछ भी गोलियाँ मरीज को खिलाना, स्टैथोस्कोप या आला या टूँटी को यहाँ-वहाँ दस सेकंड में बीस जगह छुआकर, मरीज को यह खुशफहमी देना कि डाक्टर इस आले के जरिए न जाने क्या सुनकर, न जाने कौन-सा रामबाण मारने जा रहा है (जबकि वास्तव में उनका आला वर्षों पुराना है, जंगशुदा हो चुका है तथा मात्र आभूषण-जैसी वस्तु है)। नकली-सस्ती दवाइयाँ बनानेवाली स्थानीय कंपनियों की दवाइयाँ लिखना, दवाई कंपनी के एजेंटों से दवाइयों के बारे में पढ़ना, सैम्पल की दवाइयाँ बेचना, लंबे-लंबे नुस्खों में एक-दूसरे को काटनेवाली दवाइयाँ तथा तीन-चार तरह के टॉनिक लिखना, जो भी नई दवाई दवा-कंपनीवालों ने निकाल दी उसे आँख मूँदकर लिखना, झूठे शोधपत्रों के जरिए देश-विदेश की यात्रा करना, बिना बैक्टीरिया या जीवाणु की चिंता किए कोई भी एंटीबायटिक किसी भी (दिल को पसंद आनेवाले) डोज़ में खिलाना, चार मशीनें खरीदकर पैथालोजिस्ट या रेडियोलोजिस्ट या कोई और लोजिस्ट बन जाना, आपस में मरीजों को एक-दूसरे को ऐसे रिफर करना जैसे सब तरफ से नोंचने को गिद्ध टूट पड़े हों, फाइवस्टार होटलों की ठसक के तथा महँगें नर्सिंग होम चलाना आदि। यह नहीं था कि इनके बीच अच्छे तथा सच्चे एलोपैथिक चिकित्सक नहीं थे। वे थे, पर नहीं-जैसे थे। वे थे पर उनकी प्राय: कोई पूछ नहीं थी। वे थे, और दिनोदिन वे और अधिक ‘थे’ होते जा रहे थे। वे भूतकाल की चीज हो रहे थे। चिकित्सा-क्षेत्र का वर्तमान तिकड़मों, साजिशों, दो नंबरियों तथा जोड़-तोड़वाले तथाकथित डाक्टरों का हो गया था। जनता भी ऐसे ही डाक्टरों को पसंद करती थी। उसे देश में अन्य क्षेत्रों में धोखा दिए जाने तथा जूते खाने आदि की ऐसी कुटेव लग गई थी, कि वह चिकित्सकों से भी यही चाहती थी। वह जो चाहती थी, वह भरपूर मात्रा में पा भी रही थी। जब तक डा. पांडे तथा डा. शर्मा-जैसे चिकित्सक एलोपैथी में मौजूद थे, आम जन को बेवकूफ बनने के लिए कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं थी। वे उन्हें उनके पसंद की चीज भरपूर, लगातार देते रहने की स्थिति में थे।


.......



डाक्टरों के हॉस्टल की छत पर अलसाए-से दो गिद्ध बैठे थे। दोनों खाए-पिए गिद्ध लग रहे थे। देश की स्थिति ऐसी हो गई थी कि सभी गिद्धों के खाने-पीने का भरपूर इन्तजाम हो गया था। बल्कि सही कहा जाय तो गिद्धों के दिन आ गए थे। देश गिद्धों से भर गया था। दसों दिशाएँ गिद्धमय थीं। हर कोने, कुर्सी, कार, जुलूस, स्कूल, अस्पताल तथा सड़क पर गिद्ध छा गए थे। देश पर गिद्ध मँडराते थे। आदमी के सिर पर गिद्ध छा गए थे। आदमी पर छाने का सबसे अचूक तरीका ही यह हो गया था कि गिद्ध बन जाओ। ऐसे गिद्धशुदा वातावरण में बैठे दो गिद्ध। चर्चारत ये गिद्ध पैदा होने के बाद ही अस्पताल के क्षेत्र में आ गए थे और इन्होंने पाया था कि यूँ तो सारा देश ही गिद्धों के लिए मुफीद है, परंतु अस्पताल का तो कहना ही क्या। वे यह मानने लगे थे कि आदमियों ने अस्पताल बनाया ही इसलिए था कि गिद्ध पनपें। यह इन दो गिद्धों का मत था। शायद यह सच भी था। हम यहाँ इन्हें गिद्ध-एक तथा गिद्ध-दो के नाम से संबोधित करेंगे। गिद्ध-एक ने हॉस्टल की छत से दिखते चीरघर को ताकते हुए कहा, “शर्माजी नहीं आए।” “शर्माजी कब आते हैं समय पर?” “लाश सड़ाकर मानेंगे।” “हमेशा ही सड़ा देते हैं।” “क्यों सड़ाते हैं?” “शायद, लाश का स्वाद नहीं है, इसीलिए।” “कौन कहता है कि शर्माजी को लाश का स्वाद नहीं है? इन लोगों को जिंदा आदमी का स्वाद मुँह को लग गया है, मुर्दे की तो बात ही क्या,” गिद्ध-दो ने कहा। दोनों गिद्ध इस मजाक पर हँसने लगे। वैसे यह मजाक नहीं था, यह वे गिद्ध नहीं जानते थे।



.....



जानकी बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया। वे बाहर निकले। निकलकर उन्होंने एक अँगड़ाई ली, उँगलियाँ चटकाईं और एक नजर बूढ़े रिश्तेदार तथा उसके पीछे खटिया पर मृतप्राय पड़े कनछेदी को लादे हुए, घबराए पिल्लों से परेशान गाँववालों को देखा। ये गरीब भी साले एक ही हैं। बिना पैसा लिए अस्पताल में आ जाते हैं और फिर बौराए घूमते हैं। पैसे बिना सरकारी अस्पताल में घुसने की इनकी हिम्मत कैसे होती है? सबको पागल समझ रखा है क्या, कि कोई बिना पैसा लिए काम करेगा? किसके पास फुर्सत है? कौन बताएगा इनको कि मेल मेडिकल वार्ड किधर है? सभी तो पैसा बनाने में व्यस्त हैं। क्या फीस मिलती है मेल मेडिकल वार्ड का पता बताने में? फिर कोई क्यों बताए? क्या फीस मिलती है मरीज से सांत्वनापूर्ण मीठे बोल बोलने की? फिर कोई क्यों मीठे बोल बोले मरीजों से? क्या फीस मिलती है गरीब मरीजों से हमदर्दी की? फिर कोई क्यों हमदर्दी दिखाए इन हरामियों से? यहाँ, इस अस्पताल में हर चीज की फीस तय है। डाक्टर फीस लेकर मरीज देखता है। नर्स के पैसे अलग हैं। ड्रेसर पट्टी बाँधने के पैसे माँगता है और भंगी टट्टी का बर्तन देने के पैसे ले रहा है। वे स्वयं भी एम्बुलैंस लेकर जाते हैं, तो फीस के सहारे के बिना उनका गियर नहीं बदल पाता। अस्पताल में हर काम की फीस तय है। जिनकी नहीं है, उनकी भी हो जानी चाहिए। जैसे, मेल मेडिकल वार्ड का पता बताने की फीस। इसकी फीस क्यों नहीं होनी चाहिए? अवश्य होनी चाहिए। कोई पूछे कि मेल मेडिकल वार्ड कहाँ है, या फलाँ डाक्टर साहब कहाँ मिलेंगे, या आज तारीख क्या है श्रीमान–तो तुरंत अस्पताल के कर्मचारी को चाहिए कि वह पूछनेवाले से पाँच रुपए माँग ले। “क्या बात है?” जानकी बाबू ने हिकारत से पूछा। “मेल मेडिकल वार्ड किधर है, सरकार?” “अस्पताल के अंदर है,” जानकी बाबू ने कहा। “मरीज मर रहा है सरकार, तनिक समझा देते।” “मर रहा है तो अंदर ले जाओ।” “किधर सरकार?” “मेल मेडिकल वार्ड में यार।” “पर मेल मेडिकल वार्ड किधर है सरकार?” यकायक जानकी बाबू को अपना चिंतन याद आया। क्यों न आज से इन प्रश्नों के उत्तरों की फीस लागू कर दी जाए? “बता दें?” जानकी बाबू ने पूछा। “बता दें सरकार,” कनछेदी का रिश्तेदार अभी भी घिघिया रहा था। “बता देंगे, पर पाँच रुपए लगेंगे,” जानकी बाबू ने इत्मीनान से कहा और एम्बुलैंस का सहारा लेकर खड़े हो गए।



......




ट्रॉली पर पड़ी लाश के चारों ओर भारी भीड़ है। युवा नेताओं तथा उनके भी युवा, किशोर तथा बच्चा-साथियों ने लाश पर कब्जा कर लिया। सभी नारे लगा रहे हैं। सभी गालियाँ दे रहे हैं। आसपास अभी भी फुर्सतिए मरीजों तथा तमाशबीनों की भीड़ लगी है। भीड़ बढ़ती ही जा रही है, जिसके कारण युवा नेताओं का उत्साह बरामदे में नहीं समा रहा। वे लाश को झुनझुने की तरह पकड़े हैं। डा. अग्रवाल के अलावा वे सारे डाक्टरों को भी गरिया रहे हैं, ताकि लड़ाई तथा हंगामा होने में कोई कसर न रह जाए। अस्पताल नहीं, बूचड़खाना है; समाज को बदल डालो; डा. अग्रवाल मुर्दाबाद; खून का बदला खून; इन्कलाब जिंदाबाद; हाय, हाय, हाय, हाय; डा. अग्रवाल की माँ की˙˙˙, दुनिया ने तेरे जुल्मों को देख लिया; डा. अग्रवाल को बंद करो; डाक्टर नहीं हत्यारा है; साथियो, संघर्ष करो, आदि चिरपरिचित नारों का कचरा बरामदे में तथा लाश पर बिखर गया था। एक युवा नेता ने कुर्ता फाड़कर छाती पीटना शुरू कर दिया, जिसे देखकर, नेतागिरी में साथी से पीछे न रह जाने की कसम खाए दूसरे युवा नेता ने अपना पाजामा ही उतार दिया था। चारों तरफ नंगा नाच होने लगा था। देश की बड़ी-बड़ी समस्याएँ नंगा नाच कर हल करने की यह युवा-पद्धति धीरे-धीरे बूढ़े नेताओं को भी पसंद आने लगी थी और वे भी विभिन्न मंचों पर धोतियाँ खोलकर या लँगोट उतारकर देश के सामने नंगा होने में कोई संकोच नहीं करते थे। भारतीय राजनीति का यह नंगा युग चल रहा था। इसी का नजारा इस समय सर्जिकल वार्ड के बरामदे में छोटे-मोटे स्तर पर चल रहा था। लाश के चारों तरफ राजनीति के गिद्ध-बच्चे उतर आए थे। ऐसे माहौल में एक बूढ़ा व्यक्ति भीड़ में धक्के खाता लाश की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। वह दो-चार कदम ही बढ़ पाता था कि युवा शक्ति का रेला उसे पुन: दूर धकेल देता था। पर वह बूढ़ा भी एक ही ढीठ था। वह धक्के खाता हुआ भी लाश की ओर बढ़ता ही जा रहा था। लाश अभी भी उससे काफी दूर थी। पर वह बढ़ता गया। वह काफी आगे आ गया। जूनियर डाक्टरों तथा अस्पताली कर्मचारियों का एक झुंड, जिसका प्रतिनिधित्व डा. पांडे कर रहे थे, युवा नेताओं से बहस में लगे थे। बहस का अंत वहीं हुआ, जहाँ होना था। बात गाली-गलौज से होती हुई गुत्थमगुत्था तक पहुँच गई। इसी गुत्थमगुत्था के साथ नई नारेबाजी का एक सैलाब उठा, जो पुराने नारों के कचरे को बहाता हुआ पूरे बरामदे में फैल गया। धक्कामुक्की, मारा-मारी, जूतमपैजार, लातमलात, दे दनादन, हूलगदागद, लगे, लगे, लगे, मार दिया रे, अरे दद्दा रे, अबे तेरी तो˙˙˙ आदि की लहरें जनसमुद्र में उठने लगीं; लगा दो झापड़, अरे, अरे, मर गया रे, फेंक दो स्साले को नीचे, राजीव गांधी की जय, लगा पौद पै दो लात, महात्मा गाधी की जय, पटक दे साले को नीचे, बोल सियावर रामचंद्र की, भारत माता की जय आदि का फेन इन लहरों के साथ बहता हुआ किनारों पर खड़ी तमाशबीन जनता के बीच फैल गया। बूढ़ा आदमी, जो लाश के पास तक लगभग पहुँच ही गया था, इन लहरों की चपेट में आकर भीड़ में गोता खाता हुआ बरामदे के एक कोने में जा गिरा और रोने लगा। उसे रोते देख तट पर खड़ी दर्शक भीड़, जो कहीं भी झगड़ा होते देख खड़ी हो जाती थी, उसके इर्द-गिर्द खड़ी हो गई।

View all my reviews

Comments

Popular posts from this blog

Review of Ashadh Ka Ek Din by Mohan Rakesh

Review of Suraj Ka Satvan Ghoda

Review: Dus June ki Raat