Review: Na Bairi Na Koi Begana: Volume 1 (Hindi Edition) Kindle Edition

Na Bairi Na Koi Begana: Volume 1 (Hindi Edition) Kindle Edition Na Bairi Na Koi Begana: Volume 1 (Hindi Edition) Kindle Edition by Surendra Mohan Pathak
My rating: 4 of 5 stars

सन् 1947 की स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों के बाद लाहौर लौटते ही वहां आने वाले बँटवारे की सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी और अनायास ही फिजा भारी लगने लगी थी जब कि प्रत्यक्षतः अभी ऐसा कुछ नहीं हुआ था जो कि दहशत का या असुरक्षा का माहौल पैदा करता । बाजरिया रेडियो, अखबार बँटवारे की बाबत नेताओं के बयान आते थे और उन में सबसे ज्यादा जोर—खास तौर से गान्धी जी का—इस बात पर होता था कि वो एक कागजी, भौगोलिक बँटवारा था जिस का आवाम पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था । यानी हिन्दू हो या मुसलमान, प्रस्तावित सीमारेखा के इस पार हो या उस पार, जो जहां था, पूर्ववत् वहां रहता रहेगा । हकीकतन तो ऐसा न हुआ ! हकीकतन तो तबाही, बरबादी, और विस्थापन का ऐसा हाहाकार खड़ा हुआ जिस की दूसरी मिसाल आज भी दुनिया में नहीं है । फिर भी लाहौर में हिन्दू नेताओं के भाषणों से आश्वस्त होते थे और अपने आप को तसल्ली देते थे कि सच में ही कोई अनहोनी नहीं होने वाली थी । कैसे हो सकती थी? हिन्दू मुसलमानों में बेमिसाल भाईचारा था, रोटी बोटी का रिश्ता था, कैसे कोई अनहोनी हो सकती थी ?






जब राम को बनवास का प्रसंग आता था तो अपनी व्यथा को जुबान देने के लिये राजा दशरथ—इन्दरसिंह लांड्रीवाला—एक गाना गाते थे जो कि पूरे का पूरा टैक्सी ड्राइवर फिल्म का होता था और उसके बोल औने पौने राजा दशरथ की उस घड़ी की भावनाओं पर तब फिट भी बैठते थे, नहीं बैठते थे तो जबरन बिठाये जाते थे । हरमोनियम की तान पर और ढोलक तबले की थाप पर व्यथित होते, गिरते पड़ते, पछाड़ खाते राजा दशरथ गाते थे : जायें तो जायें कहां समझेगा कौन यहां दर्दभरे दिल की जुबां जायें तो जायें कहां ! मायूसियों का मजमा है जी में क्या रह गया है इस जिन्दगी में रुह में गम, दिल में धुआं जायें तो जायें कहां ! ओ जाने वाले दामन छुड़ा के मुश्किल है जीना तुझको भुला के इक किश्ती सौ तूफां जायें तो जायें कहां । उनका भी गम है, अपना भी गम है.... मूल गाने में दूसरी लाइन है ‘अब दिल में बसने का उम्मीद कम है’ । यहां इन्दरसिंह लांड्रीवाला अपनी अक्ल लड़ाता था और राजा दशरथ के उस घड़ी के किरदार के अनुरूप उस लाइन को अमैंड करके गाता था : अब मेरे बचने की उम्मीद कम है । गाना खत्म होता था, राजा दशरथ आखिरी बार पछाड़ खा के गिरते थे और एक साल और इन्दरसिंह लांड्रीवाला की पावरफुल परफारमेंस का समापन होता था । जो पंजाबी सज्जन रावण बनते थे, उन का जिस्म भारी भरकम था और कद लम्बा था इसलिये रावण के मेकअप में बहुत प्रभावशाली लगते थे । अन्त में जब राम रावण युद्ध में मृत्यु को प्राप्त होते थे तो यूं धराशायी होते थे कि स्टेज हिला देते थे । दर्शकों में बैठी उन की पत्नी सब से ज्यादा व्याकुल होती थी, यूं जैसे कि रावण न मरा हो, उस का पति मर गया हो । उस बात से हलकान हर बार वो अपने पति से मनुहार करती थी—“आप रावण न बना करो ।” उसकी मनुहार कभी कबूल नहीं होती थी । हर साल वो ही रावण बनता था । आखिर उस किरदार को निभाने में उसे जितनी वाहवाही हासिल होती थी, उतनी तो किसी भी दूसरे अभिनेता के किरदार को हासिल नहीं होती थी—राम को भी नहीं, दशरथ को भी नहीं ।

जो मैं कभी खुद न कर सका, लेखक बन जाने पर आखिर वो मैंने सुनील से करवाया । जो जवाब मेरे को देने चाहियें थे पर कभी न दे सका उन का जरिया मैंने सुनील को बनाया और मन की भड़ास निकाली । सच पूछें तो इसीलिये सुनील हमेशा मुझे अपनी काउन्टरईगो जान पड़ता है ।

View all my reviews

Comments

Popular posts from this blog

Review of Ashadh Ka Ek Din by Mohan Rakesh

Review of Suraj Ka Satvan Ghoda

Review: Dus June ki Raat